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कैसे कह दू के मुलाकात नहीं होती है
रोज मिलते है मगर बात नहीं होती है
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बात किसी प्रेमी या दोस्त की नहीं आज बात जनता और उसके जनतंत्र की है . दशको से आज़ादी का गुमान लिए जी रहे है पर मिली ऐसी आज़ादी जिसमे असंतोष और अंधेर ही पनपा. अँधेरी रात की आज़ादी में जिस सुबह का इंतज़ार था शायद वो कही गुम हो गयी. आज़ादी का मतलब अगर सिर्फ अपने राजा और अपने सिपाही से होता तो राजशाही ही ठीक थी. नौकरी तब भी कर रहे थे तब साहब गोरे थे बस. लोगो ने सोचा था की आज़ादी के बाद अपने लोगो के साथ में सुरक्षा न्याय और शांति से रहने का सपना पूरा होगा पर हुआ कुछ उल्टा ही. सरकारों ने राज तो किया पर अपनी जिम्मेदारी देश के प्रति ना करके बल्कि कुछ घरानों और पार्टी के लिए कर दी. जय जवान जय किसान का नैरा तो निकला पर जवान और किसान के लिए कोई जगह नहीं बानी समाज में. दोनों ही शोषित रहे. दोनों ही राजनीती और शासन की सीढ़ी ही बन पाए. न जाने कितनी पंचवर्षीय योजनाए बनी और कितने पंच पर जनता जवान-किसान से हिन्दू-मुस्लमान, अगड़ा-पिछड़ा, सवर्ण-दलित, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के बीच में कुर्सी दौड़ मिलेगी रही, जिसमे कुर्सी पर तो नेता ही बैठा और जनता फिर शुरू कुर्सी दौड़ में अपनी कभी न आने वाली बारी के इंतज़ार में. बड़े बड़े चेहरे आये पर हम तो कभी उनको मंच पर तो कभी सड़क चौराहे पर उनके बाप दादे के बुतो पर माला पहनाते रहे. क्या यही है जनतंत्र ? क्या यही है जनता की नियति ? ६७ साल पहले हम अनपढ़ और गरीब जरूर थे पर एक जुट थे एक राष्ट्र था एक झंडा था और आज सब कुछ बिखर गया. झंडा जलाया जा रहा है राष्ट्र को गाली दी जा रही है, और समाज व् परिवार टूट रहे है. कौनसा बीज बोया इस जनतंत्र ने इन ६७ सालो में ? कौन सी तालीम हमें मिली हमारे रहनुमाओ से ? सिर्फ बाँटने की और लूट खसोट की. देश की समस्याए या तो जस की तस है या विकराल हो गयी है. सीमा आज भी असुरक्षित है. पुलिस और सेना के जवान जान की बाजी लगते है और देश के नेता उन्हें ही कटघरे में खड़ा कर देते है. ईमानदार आदमी लाइन में लगता है और नेताओ के गुर्गे वी.आई.पी. हो गए. भगत सिंह आज भी आतंकवादी है और सर शोभा सिंह से लेकर खुशवंत सिंह तक लुटियन जोन की पसंद बन गए. विनोबा भावे का नाम लेवा नहीं रहा और एक विशेष राजनितिक परिवार भारत रत्न हो गया. देश तो गिरवी हो गया चाँद राजनितिक पार्टियों और उनके अवसरवादी चुनावी अभियानों का. किसी से भी पूछ लो सबने विकास और सुशासन दिया, बलिदान दिया पर फिर भी कश्मीर से लेकर केरल, बिहार से बंगाल हर जगह वर्ग भेद, साम्प्रदायिकता चरम पर है. यही परणिति है जनतंत्र की जिसके सपने दिखा कर मोहन दास गाँधी और नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने लाखो लोगो के जज्बातो के साथ आज़ादी का रेखाचित्र दिया था. अंतिम आदमी की बात करने वाले राजनितिक लोग क्या जवाब देंगे कि कोई आज उनके गांव और घर में बन्दुक के बल पर धमकाता है और भारत का जनतांत्रिक सरकार उनकी सुरक्षा या सरंक्षण देने कि जगह उन्हें गांव या घर छोड़ने कि सलाह देता है ? या घर छोड़ने के लिए रिफ्यूजी कैंप बना देती है. क्या पुलिस इन चंद अराजक लोगो से निपट नहीं सकती थी ? कश्मीर के लोगों का कत्ले आम होता रहा और सरकारे रिफ्यूजी कैंप बना कर उन्हें कश्मीर से दूर करती रही. और राजनितिक दल विकास और सुशासन का झंडा फहराते रहे. यही हल असम में हुआ बांग्लादेशी मुसलमानो को राजनीती के चलते बसाया और वह के मूल निवासियों का कत्ले आम करवा के राज करते रहे. कमोबेश यही हाल बिहार और बंगाल का भी हो रहा है. दबंगई अपहरण और नक्सली आंदोलन के नाम पर बिहार से लोगो का पलायन शुरू हुआ तो आज तक नहीं रुका. लाखो बिहारी परिवार अपना स्वाभिमान और जमा जमाई रोजी रोटी छोड़ कर महानगरो कि तरफ चले गए और जो बच गए उन्हें शहाबुद्दीन जैसे गुर्गो ने तेजाब से नहला कर मार दिया या डरा धमका कर अपने काम का बना लिया और सरकार की पुलिस नेताओ की चाकरी में लगी रही बजाय कानून व्यवस्था सँभालने के .बंगाल में नक्सली आंदोलन ने तो सारा वैभव और औद्योगिक हैसियत ही नेस्तनाबूद कर दी.
बंगाल में लाल सलाम का दर और कहर आज भी लोगो को याद है. तक़रीबन ७०% उद्योगपति और धंधे बंद हो गए और गरीबो की लड़ाई के नाम पर लड़ने वाले वामी धनवान होते गए. नतीजा बंगाल में आज बेरोजगारी.
क्या कह सकते है जब पुलिस, नेता और दबंग तीनो मलाई काट रहे है और जनता का पुरसाहाल कोई नहीं. कौन सा ऐसा हिस्सा है देश का जहा कह सके की आम लोग बिना सोर्स के या लिंक के चैन से रह लेते है. कश्मीरी कश्मीर से बाहर, बिहारी बिहार से बाहर, असामी आसाम से बाहर , बंगाली हिन्दू बंगाल में मर रहा है, उत्तर प्रदेश भी अपहरण उद्योग बन गया है. देश में आम आदमी सुरक्षित नहीं है कौन पुरसा हाल है इनका ना कांग्रेस, ना भाजपा, ना ममता बनर्जी या ज्योति बासु, ना शेख अब्दुल्ला या मुफ़्ती मोहम्मद सईद, ना लालू प्रसाद यादव को. कुर्सी मिलनी चाहिए चाहे इंसान की बलि चढ़े या कानून की. आम आदमी तो हर जगह लुट रहा है. कुल मिलकर देखे तो “जनतंत्र तो भस्मासुर साबित हो रहा है”. जनता के सामने होते हुए भी उसके पहुच से कोसो दूर.
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